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Saturday, December 8, 2018

कनिष्क प्रथम की विजयों का सविस्तार वर्णन कीजिए।

कनिष्क प्रथम की विजयों का सविस्तार वर्णन कीजिए।

उत्तर- सम्भवतः 78 ई. में उसने सत्ता अधिग्रहण की कनिष्क भारत का ही नहीं। विश्व के महान् सम्राटों में विशिष्ट स्थान रखता है अपने पिता से विरासत में उसे एक विशाल साम्राज्य मिला था। उसने भी अपने पूर्वजों का अनुसरण करते हुए युद्धों की परम्परा बनाये रखी और अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अनेक युद्ध किये वह एक शक्तिशाली योद्धा था, और उसका जीवन अधिकांशत: युद्धों में ही व्यतीत हुआ। किसी भी भारतीय शासक के साम्राज्य में मध्य एशिया का इतना बड़ा भाग शामिल नहीं था जितना कि कनिष्क के साम्राज्य में था । अनेकानेक विजयों के परिणाम स्वरूप कनिष्क का साम्राज्य काफी विस्तृत हो गया था.


कनिष्क की विजयों का उल्लेख निम्न प्रकार किया जा सकता है।
(1) कश्मीर विजय-कनिष्क ने सबसे पहले काश्मीर पर आक्रमण किया । काश्मीर के प्राकृतिक सौन्दर्य से वह बहुत अधिक प्रभावित हुआ था । अपने पिता के शासन काल में वह कई बार काश्मीर में रह चुका था और बहुत दिनों से उसकी इच्छा उसे अपने अधीन करने की थी उसने इस स्वप्न को साकार रूप प्रदान किया कनिष्क को काश्मीर विजय में किसी भी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा । काश्मीर को अपने अधीन कर उसने अनेक स्मारकों का निर्माण कराया और बौद्ध सभाओं का भी आयोजन किया। उसने वहाँ कनिष्कपुर नाम का एक नगर भी बसाया । “राजतरंगिण” तथा बाल अनुश्रुतियों के द्वारा कनिष्क का काश्मीर को विजित करने एवं शासन करने का उल्लेख मिलता है।


(2) मगध विजय- बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार कनिष्क का दूसरा युद्ध मगध के विरूद्ध हुआ । कनिष्क ने विशाल सेना लेकर मगध पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी पाटलिपुत्र तक जा पहुँचा । पाटलिपुत्र में उसका सम्पर्क बौद्ध विद्वान अश्व घोष के साथ हुआ जिसकी विद्वता से प्रभावित होकर वह उसे अपने दरबार में ले गया। वहाँ उसने उसे राजश्रम देकर उससे बौद्ध दर्शन के सिद्धांतों की जानकारी ली । मगध का शासक इस समय कोटकुल था। उसने कनिष्क की अधीनता स्वीकार कर ली।


(3)शकों पर विजय- कनिष्क ने अब अपनी विशाल का रुख उत्तरी भारत के पंजाब व मथुरा के शक क्षत्रिपों की ओर मोड़ा और उन्हें हराकर उनकी सत्ता सदैव के लिये समाप्त कर दी गुजरात में कई क्षत्रियों का शासन था। वे भी उनके सामने नहीं टिक सके और उन्होंने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली।


| (4) चीन पर विजय-कनिष्क ने जितने भी युद्ध किये उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उसका चीन के साथ युद्ध था। इस समय चीन में ह्वान-कुल का शासन था। उसका सेनापति पानचाऊ था जो अत्यन्त पराक्रमी और कुशल योद्धा था। उसने चीन का विस्तार कर उसकी प्रतिष्ठा बहुत अधिक वृद्धि की । चीन की सीमाएँ काश्मीर से सटी हुई भी अत: कनिष्क ने देखा कि काश्मीर को कभी भी खतरा पैदा हो सकता है। अतः उसने चीन से युद्ध करने की योजना बनाई। सबसे पहले कनिष्क ने चीनी सेनापति पान-चाऊ के पास एक राजदूत भेजा। और कहलाया कि कनिष्क चीन नरेश की एक राजकुमारी से विवाह करना चाहता है। पान-चाऊ ने इसे अपने स्वामी का अपमान समझा और राजदूत को बन्दी बना लिया गया। 


कनिष्क ने 70 हजार अश्वारोहियों की एक सेना चीन पर आक्रमण करने के लिए भेजी किन्तु युद्ध में उसे परास्त होना । पराजय के पश्चात् कनिष्क को चीन से संधि करनी पड़ी और चीन नरेश को कर देना पड़ा। कुछ समय बाद उसने चीन पर दूसरी बाद आक्रमण किया। इस समय चीनी सेना का नायक पान-चाऊ का पुत्र था। वह अपने पिता की तरह युद्ध में कुशल और अनुभवी नहीं था। अतः कनिष्क ने इस बार विजय प्राप्त कर पहली पराजय का बदला ले लिया।


(5) कनिष्क का विशाल साम्राज्य–कनिष्क ने अपने बाहु-बल से अपने साम्राज्य का काफी विस्तार कर लिया। उसका साम्राज्य पश्चिम में खुरासान से लेकर पूर्व में विहार तथा उत्तर में काशगर से लेकर दक्षिण में मालवा तक फैला हुआ था। इस विस्तृत साम्राज्य की राजधानी पुष्पपुर या पेशावर थी। भारत के बाहर उसके साम्राज्य में अफगानिस्तान बैक्ट्रिया, यारकन्द आदि शामिल थे। भारत में उसके अभिलेख भूतपूर्व पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में पेशावर और जेदा में भूतपूर्व पंजाब में रावलपिण्डी के निकट माणिक्याला और बहावलपुर के निकट सुई बिहार में, उत्तर प्रदेश में मथुरा, श्रावस्ती और कैशाम्बी और सारनाथ में मिले हैं। 

उसके उत्तराधिकारी, अल्पकालीन शासक वासिष्क का एक अभिलेख साँची में मिला है। इनसे विदित होता है कि मालवा भी कनिष्क के साम्राज्य में था। इस तरह उसकी विजय सम्बंधी अनुश्रुतियों से स्पष्ट होता है कि कनिष्क द्वारा शासित भारतीय प्रान्तों में पंजाब, कश्मीर, सिन्धु संयुक्त प्रान्त ओर सम्भवतः कुछ पूर्व और दक्षिणवर्ती भूमि भी शामिल थी।

डॉ. राजबली पाण्डेय ने लिखा है कि “कनिष्क एक बहुत बड़ा विजेता था। उसने एक अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना की जो एशिया के कई देशों पर फैला था ।” डॉ. नाहर ने कनिष्क के साम्राज्य विस्तार का वर्णन करते हुए लिखा है कि “कनिष्क के साम्राज्य में भारत के बाहर का काफी विस्तृत भू-भाग सम्मिलित था। अफगानिस्तान, बैक्ट्रिया, काशगार, खोतन, और यारकन्द निश्चित ही उसके साम्राज्य के अन्तर्गत थे। उसके अभिलेख साक्ष्यों से इस बात का प्रमाण मिलता है कि कनिष्क का अधिकार आधुनिक पंजाब, उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त तथा सिन्ध के उत्तर में मावलपुर राज्य पर था। कनिष्क के अनेक लेख मथुरा में भी मिले है। 


जिससे मथुरा का उसके अधीन होना स्वतः सिद्ध है परन्तु चीनी अनुश्रूति उसे साकेत और पाटलिपुत्र का विजेता भी बतलाती है। उसके सिक्के भी श्रीवस्ती, सारनाथ तथा कोशाम्बी इत्यादि से प्राप्त हुए हैं पूर्व में गाजीपुर तथा गोरखपुर से उसके सिक्के प्राप्त हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व में वाराणसी तक तो अवश्य ही उसका अधिकार था । कनिष्क के तीसरे राज्यांक में सारनाथ में प्रतिष्ठित एक बोधिसत्व मूर्ति की पाद पीठ पर खड़े हुए लेख से स्पष्ट होता है कि उस समय वारणसी कनिष्क के साम्राज्य में थी । यद्यपि बंगाल और बिहार में भी कनिष्क के सिक्के मिले हैं लेकिन इन प्रान्तों का उसके साम्राज्य में सम्मिलित होना संदेहपूर्ण है। 

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